जीवन का हर अनुभव आपको कुछ न कुछ सिखाता है। पहले लगता था कुछ भी लिख लेना बहुत बड़ी बात है। कुछ मानसिक वयस्क लोगों से परिचय हुआ तो पता चला ‘अच्छा लिखना बड़ी बात’। थोड़ा लिखने-पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि आप जैसा चाहें वैसा लिख पाना अलग ही संतुष्टि देता है मन को। समय बीता…और विद्वानों की संगत में रहकर जाना कि जो भी लिखा जाए, वो पढ़ने या सुनने वाले का हो जाए तो लेखन सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। इन सब के बीच कहीं भी मेरा सामना इस व्यावहारिक सत्य से नहीं हुआ कि सफल लेखन तभी माना जाता है, जब उसे छापने के लिए प्रकाशक राज़ी हो जाए।

पहली किताब छपवाने के दौरान तक़रीबन आधा दर्जन बड़े प्रकाशकों से मिली। किसी ने पैसे माँगे तो किसी ने कहा कि – “कविता की किताब कौन पढ़ता है मैडम! आप ऐसा करें कोई उपन्यास लिखें। हम ज़रूर छापेंगे।” मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैंने तो किसी के कहने पर कविता भी नहीं लिखी, फिर कहानी कैसे लिखूँ? वो कैसे लिखूँ, जो जिया ही नहीं। वो कैसे दिखूँ, जो हूँ ही नहीं।

बहुत निराशा हुई। बहरहाल, मेरे कुछ अपनों ने मुझे संभाला और मुझे विश्वास दिलाया कि तुम कहीं से भी छपवा लो किताब। जो तुम्हें पढ़ना चाहते हैं, पढ़ेंगे ही। कुल मिलाकर, इस किताब का आना मेरे लिए एक परीक्षा के परिणाम की तरह रहा । मैं इसमें पास तो होना चाहती थी, मग़र बिना परीक्षा दिए।

ख़ैर, तक़रीबन ड़ेढ साल की जद्दोजहद के बाद किताब आप सब तक पहुँची है, और आपकी तस्वीरों के माध्यम से आपका प्यार मुझतक पहुँच रहा है। विश्वास कीजिए मेरी कविताओं पर ठहरी हुई आपकी उंगलियाँ मैं महसूस कर पा रही हूँ।

आज ‘मीठा काग़ज़’ की उसके पाठक के साथ पहली तस्वीर मिली है, जिसे भेजा है जयगोपाल जी ने । एक रचनाकार के लिए ये तस्वीर एक यात्रा की पूर्णता है। मेरे शब्दों की यात्रा, आपके मन तक। बहुत शुक्रिया जय गोपाल जी। किताब पर आपकी प्रतिक्रिया की भी प्रतीक्षा रहेगी।

आप सबकी और भी ढेर सारी तस्वीरों के इंतज़ार में…

—मनीषा शुक्ला

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